-हरियाली अमावस्या, पर्यावरण संरक्षण का सनातन संकल्प
-हरियाली अमावस्या एक पर्व भी और प्रकृति संरक्षण की एक परंपरा भी
-अमावस्या, आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मचिंतन का समय
-वृक्ष, मौन ऋषियों की तरह : स्वामी चिदानन्द सरस्वती
ऋषिकेश। परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने हरियाली अमावस्या के अवसर पर पर्यावरण संरक्षण की सनातन परंपरा का संदेश देते हुये कहा कि यह पर्व न केवल भारतीय संस्कृति की आत्मा को अभिव्यक्त करता है, बल्कि आज की वैश्विक पर्यावरणीय चुनौतियों का भी उत्तर है।
स्वामी जी ने कहा कि आज जब पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान में वृद्धि और प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण जैसी समस्याओं से जूझ रहा है, ऐसे समय में हमारी सनातन संस्कृति की परंपराएँ इन संकटों से उबरने का आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक समाधान प्रस्तुत करती हैं।
हरियाली अमावस्या केवल पौधारोपण का पर्व नहीं है, यह एक चेतना है, प्रकृति, प्राण और परंपरा को जोड़ने की। भारतीय संस्कृति में वृक्षों को केवल ऑक्सीजन उत्पादक या पर्यावरण के घटक के रूप में नहीं देखा गया, बल्कि उन्हें वृक्ष देवता के रूप में पूजा जाता है। पीपल, वटवृक्ष, नीम, तुलसी जैसे पौधे भारतीय जनमानस में पूजनीय हैं। स्वामी जी ने कहा, भारत ने कभी वृक्षों को ‘कार्बन एसेट’ नहीं माना, बल्कि ‘जीवित देवता’ के रूप में वंदित किया है। यही दृष्टिकोण पर्यावरणीय संकट से उबरने का मूलमंत्र है।
स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने कहा कि, वृक्ष मौन ऋषि के समान होते हैं। वे केवल देते हैं, कभी शिकायत नहीं करते, छाया देते हैं, फल देते हैं, पर अपेक्षा नहीं करते। आज हमें वृक्षों से सीखने की आवश्यकता है, सेवा करना, सहना और फिर भी मुस्कुराना हमें वृक्ष ही बताते है।
अमावस्या, जहाँ एक ओर चंद्रमा के अदृश्य होने का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर यह अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा का भी संकेत देती है। स्वामी जी ने कहा कि हरियाली अमावस्या आत्मचिंतन का समय है, अपने भीतर झाँकने का, अपनी जीवनशैली की समीक्षा करने का और प्रकृति के प्रति अपने कर्तव्यों को पहचानने का अवसर भी हमें देती है।
स्वामी जी ने कहा कि आज जब विश्व के विकसित देश क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं, परन्तु भारत ने अपनी ऋषि परंपरा के माध्यम से पहले से ही समाधान दिये है। हमारे यज्ञ, हमारे उपवन, हमारी परंपराएँ ये सब सतत विकास और संतुलन के प्रतीक हैं। पश्चिम जहाँ अब जाकर ‘ग्रीन’ बनने की बात कर रहा है, भारत सदियों से हरियाली को जीवन का मूल मानकर चल रहा है।
स्वामी जी ने कहा, हमारी संस्कृति में हर पर्व का एक आध्यात्मिक, सामाजिक और पर्यावरणीय उद्देश्य होता है। हरियाली अमावस्या इसका सुंदर उदाहरण है। आज आवश्यकता है कि हम इस पर्व को केवल रस्म के रूप में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चेतना और वैश्विक समाधान के रूप में अपनाएँ। तभी हम आने वाली पीढ़ियों को एक हरा-भरा, समृद्ध और शांत धरती दे पाएँगे।